सोनपुर मेला, जो बिहार के सोनपुर में हर साल आयोजित होता है, न केवल एक ऐतिहासिक मेला है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और परंपराओं का भी प्रतीक रहा है। यह मेला पहले एक महत्वपूर्ण साहित्यिक सभा के रूप में मशहूर था, लेकिन समय के साथ इसका रूप और पहचान बदल चुकी है। आजकल यह मेला न केवल पशुओं की खरीद-फरोख्त के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां थिएटर, नृत्य और कई विवादास्पद प्रदर्शनों का भी आयोजन होता है।
साहित्यिक सभा का स्वर्णिम दौर
सोनपुर मेला का इतिहास बहुत पुराना है और यह पहले एक साहित्यिक सभा के रूप में आयोजित किया जाता था। उस समय यह मेला ज्ञान, साहित्य और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। देश के विभिन्न हिस्सों से लेखक, कवि और विद्वान यहां एकत्र होते थे, ताकि वे अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें। साहित्यिक और सांस्कृतिक संवादों का यह अवसर लोगों के लिए एक विशेष आकर्षण का कारण था।
समय के साथ बदलाव
समय के साथ सोनपुर मेला का रूप बदलता गया। साहित्यिक गतिविधियों की बजाय अब यहां की पहचान पशु मेले, खासकर हाथियों, घोड़ों और बैल की खरीद-फरोख्त के रूप में होने लगी। इसके अलावा, मेला क्षेत्र में नाटक, संगीत और नृत्य के आयोजन भी होने लगे। पहले यहां की सादगी और बौद्धिक विमर्श का माहौल था, लेकिन अब यह एक तरह के मनोरंजन का केंद्र बन गया है।
अश्लील नृत्य और विवाद
आजकल सोनपुर मेला में विशेष रूप से नृत्य और नाटक का आयोजन होता है। लेकिन यह आयोजन अब उस प्रकार का मनोरंजन बन चुका है, जो अक्सर अश्लीलता और विवादों से घिरा रहता है। जहां एक ओर यह मेले के एक पुराने रूप को ताजगी प्रदान करने का प्रयास करते हैं, वहीं दूसरी ओर अश्लील नृत्य और गानों के कारण यह मेला आलोचनाओं का भी सामना कर रहा है। इन प्रदर्शनों की आलोचना समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा की जाती है, जो इसे भारतीय संस्कृति और परंपराओं के खिलाफ मानते हैं।

सोनपुर मेला का भविष्य
हालांकि सोनपुर मेला आज भी एक आकर्षक स्थल है, जहां लाखों लोग एकत्र होते हैं, लेकिन इसके सांस्कृतिक और साहित्यिक स्वरूप को फिर से जीवित करना एक चुनौती बन चुका है। यदि आयोजकों और सरकार ने इस दिशा में ध्यान नहीं दिया, तो यह मेला अपने सांस्कृतिक महत्व को खो सकता है और केवल एक व्यावसायिक आयोजन तक सिमट कर रह जाएगा।
सोनपुर मेला का इतिहास दर्शाता है कि कैसे एक सांस्कृतिक मेला समय के साथ अपने मूल रूप से भटक सकता है। लेकिन यह भी एक मौका है, जब हम अपनी परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहर को नए तरीके से संरक्षित कर सकते हैं, ताकि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श बन सके।