Wednesday, July 2, 2025
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भारतीय महिलाएँ हमेशा भगवान और त्योहारों के नाम पर भेदभाव का शिकार रही हैं! हम आखिरकार इस पर चुप्पी कब तोड़ेंगे?

भारत में महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान की बात की जाए तो एक गहरी और लम्बी कहानी सामने आती है। समाज में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले हमेशा ही कमतर आंका गया है। यह भेदभाव न केवल सामाजिक ढांचे में पाया जाता है, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में भी गहरे से समाया हुआ है। भारतीय त्योहारों और धार्मिक आयोजनों के दौरान महिलाओं के साथ भेदभाव विशेष रूप से देखा जाता है। ऐसा क्यों होता है, और हम इस पर चुप्पी कब तोड़ेंगे?

धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के अधिकार

भारत में अनेक धार्मिक स्थान हैं, जहाँ महिलाएँ पूजा-पाठ और धार्मिक क्रियाओं में भाग लेने के लिए वंचित होती हैं। चाहे वह अयोध्या का राम जन्मभूमि हो या केरल का सबरीमाला मंदिर, इन स्थानों पर महिलाओं को पूजा-अर्चना करने से रोका गया है। कई धार्मिक आयोजनों में महिलाओं को आंशिक या पूरी तरह से प्रतिबंधित किया गया है, और यह केवल उनके लिंग के कारण होता है। उदाहरण स्वरूप, सबरीमाला में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगी हुई थी, जबकि पुरुषों को किसी भी उम्र में प्रवेश की अनुमति थी। इस तरह के भेदभाव ने यह सवाल उठाया है कि क्या धार्मिक प्रथाएँ महिलाओं को उनका समान अधिकार देने में विफल हो रही हैं?

त्योहारों में महिलाओं की भूमिका

त्योहारों के दौरान भी महिलाओं को विशेष रूप से एक निश्चित भूमिका में ही बांध दिया जाता है। कई जगहों पर यह देखा गया है कि महिलाओं को केवल घर के भीतर रहने, रसोई में काम करने और पूजा की तैयारी करने तक सीमित रखा जाता है। जब हम त्योहारों की बात करते हैं, तो अक्सर यह मान लिया जाता है कि महिलाएँ केवल पूजा का हिस्सा होती हैं, न कि उत्सवों के आयोजक। क्या यह सही है कि महिलाएँ सिर्फ उपभोगकर्ता के रूप में जश्न मनाती हैं और उन्हें सक्रिय रूप से समाज की सांस्कृतिक धारा से बाहर रखा जाता है?

भगवान के नाम पर भेदभाव

धार्मिक आस्थाओं और देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा भी महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को बढ़ावा देती है। भगवान को पुरुष रूप में प्रस्तुत किया जाता है और अक्सर महिलाओं को देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता है, लेकिन उन्हें धार्मिक अनुष्ठानों में बराबरी का अधिकार नहीं दिया जाता। इस भेदभाव का असर महिलाओं की मानसिकता पर भी पड़ता है, जहाँ वे भगवान से अपनी समानता और अधिकार की उम्मीद नहीं कर पातीं। उदाहरण के लिए, अक्सर यह कहा जाता है कि महिलाएँ “अशुद्ध” होती हैं, और उन्हें कुछ धार्मिक गतिविधियों में भाग लेने से रोका जाता है।

बदलते हुए समय में बदलाव की उम्मीद

हालाँकि, इन परंपराओं और धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ समय-समय पर आवाज उठाई गई है, फिर भी यह भेदभाव समाज के गहरे ताने-बाने में समाया हुआ है। महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। भारतीय महिला आंदोलन ने बहुत सी परंपराओं और कुरीतियों को चुनौती दी है, और कई मामलों में महिलाओं को उनके अधिकार मिल भी रहे हैं। लेकिन यह जरूरी है कि हम इन मुद्दों पर खुलकर बात करें और इन भेदभावपूर्ण परंपराओं को बदलने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं।

निष्कर्ष

हमारे समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि धर्म और संस्कृति का मतलब महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करना नहीं होना चाहिए। महिलाएँ भी समान रूप से पूजा करने, उत्सव मनाने, और धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा बनने का अधिकार रखती हैं। जब तक हम इस मानसिकता को नहीं बदलेंगे, तब तक हम न केवल समाज में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे, बल्कि अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक धारा को भी सही दिशा में नहीं ले जा पाएंगे। हमें अब इस चुप्पी को तोड़ना होगा और अपने समाज में वास्तविक समानता की ओर कदम बढ़ाना होगा।

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